Varsha Ritu me Aahar Vihar
सभी ऋतुओं में दो ऋतुएं ऐसी हैं जो शरीर और स्वास्थ्य के अलावा हमारे मन और मानसिक अवस्था को भी प्रभावित करती हैं, हमारे मूड को प्रभावित करती हैं और हमारे आचार-विचार को प्रभावित करती हैं बशर्ते हम स्वस्थ, निरोग और प्रसन्न चित्त हों।
यह दो ऋतुएं हैं वसन्त ऋतु और वर्षा ऋतु । वसन्त ऋतु को ‘ऋतुराज’ और कामदेव का मित्र भी कहा जाता है क्योंकि हमारे देश में वसन्त ऋतु ही एक ऐसा समय होता है जब हर तरफ़ सामान्यता, समशीतोष्णता और सौम्यता का वातावरण प्राकृतिक रूप से उपलब्ध रहता है। हवा में एक अद्भुत मस्ती छाई रहती है। मौसमे बहार इसीलिए खुशगवार और मज़ेदार लगता है।
(वर्षा ऋतु से विसर्गकाल का प्रारम्भ और आदानकाल का अन्त होता है। ग्रीष्म ऋतु की भयानक गर्मी से वर्षा की फुहारें हमें राहत दिलाती हैं। इस ऋतु में वात कुपित रहता है, पित्त संचित होता है और कफ शान्त रहता है। जठराग्नि दुर्बल रहने से पाचन क्रिया मन्द हो जाती है। अतः आहार विहार के प्रति सतर्क रह कर स्वास्थ्य की रक्षा करना चाहिए।)
दूसरी ऋतु है वर्षा ऋतु याने बरसात । यह ऋतु बड़ी रोमांटिक और मनभावन होती है। इस पर कवियों, गीतकारों और शायरों ने जितना लिखा और कहा है उतना अन्य किसी भी ऋतु के विषय में नहीं लिखा। यह ऐसी सुहानी ऋतु है जिसमें मेढकों का टर्राना भी अच्छा लगता है और उनके टरनि की आवाज़ किसी सुरीले संगीत की लय जैसी मालूम देती है। तुलसीदास जी ने इस ऋतु का वर्णन करते हुए इसीलिए कहा था –
दादुर धुनि चहुं दिसा सुहाई । वेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई ।।
जब आकाश में उमड़ घुमड़ कर घनघोर घटाएं छा जाती है तब मन का मोर खुशी से नाच उठता । वातावरण बड़ा सुहाना हो जाता है जिसमें समाई हुई मिट्टी की सोंधी सोंधी खुशबू मन को बहुत भाती है। शायरों ने ऐसे माहौल के विषय में लाजवाब शैर और ग़ज़लें कही हैं, गीतकारों ने गीत रचे हैं कवियों ने कविताएं लिखी हैं। तुलसी दासजी ने बड़ा सुन्दर चित्र खींचा है
बरषाकाल मेघ नभ छाए। गरजत लागत परम सुहाए।।
घन घमण्ड नभ गरजत घोरा । प्रिया हीन डरपत मन मोरा ।।
आकाश में घिरी घटाओं और उनके गरजने का वर्णन करते हुए तुलसीदास जी कहते हैं कि आकाश में जब घटाएं घिर आती हैं तो इस सुहाने दृश्य को देख कर मोर प्रसन्न होकर नाचने लगते हैं साथ ही अपनी प्रिया याने मोरनी से बिछुड़े हुए मोर का मन विरह व्यथा से व्याकुल और भयभीत हो उठता है। मोर ही एक ऐसा पक्षी है जो आकाश में घटाएं घिरने से प्रभावित होता है और बादलों का गर्जन सुनकर नाचने लगता है।
ज़रा कल्पना कीजिए कि सावन भादों की झड़ी लगी हुई है, बादल गरज रहे हैं, बिजली बार-बार चमक रही है, रिमझिम की मधुर ध्वनि के साथ मदमस्त फुहारों के झोंके आ रहे हैं, हवा में सोंधी सोंधी खुशबू आ रही है, ग्रीष्म ऋतु की झुलसाने वाली गर्मी और भयंकर लू वाली हवा की जगह मनभावन और सिहरन पैदा करने वाली मन्द मन्द बयार बह रही है। कितनी रोमांचक, मन मोहक और गुदगुदाने वाली स्थिति है, है न?
लेकिन कब? यह शायराना माहौल कब सुहाना लगता है, कब मन को मोहता है और ऊपर कही गई बातें कब सोलह आने सही साबित हो सकती हैं? इस पर ज़रा सोचें और गहरे में विचार करें तो यह बात समझ सकेंगे कि ऐसा तभी हो सकता है जब हम शरीर से स्वस्थ और मन से प्रसन्न हों। मन के आकाश पर भी उमंग भरी घटाएं घिरी हुई हों, प्रसन्नता का इन्द्रधनुष छाया हुआ हो, आनन्द की फुहारें पड़ रही हों, प्रेम की वर्षा हो रही हो, उत्साह और उमंग की बिजली बार बार चमक रही हो, स्वास्थ्य की हरियाली पूरे शरीर में छाई हुई हो।
अब यह भी भला क्या बात हुई कि ऐसे मस्ती भरे माहौल में अगर आपकी तबीअत हुई कि ताज़े भुट्टे सेक कर खाये जाएं या भुट्टे का किस खाया जाए, गरम गरम पकौड़े या भजिए खाये जाएं लेकिन हाज़मे का हाल यह हो कि हज़म ही न कर पाएं और पतले दस्त लग जाएं तो सब कचरा हो गया।
कोई चीज़ कितनी ही सुहानी और मन को मोहने वाली हो, हमें तभी आकर्षित कर पाती है जब हम मन से स्वस्थ और प्रसन्न हों, मन मस्ती और उमंग से भरा हो। इसी प्रकार कोई भी कि पदार्थ कितना ही स्वादिष्ट और गुणकारी हो वह तब तक हमारे लिए लाभप्रद सिध्द नहीं हो पाता जब तक हमारा शरीर स्वस्थ और हाज़मा ताक़तवर न हो।
हाजमा दुरुस्त न हो तो खाने का मज़ा मिलना तो दूर ही रहता है उल्टे कज़ा गले पड़ जाती है। गोया उल्टे बांस बरेली के लिए लद जाते हैं। इसीलिए तो कहा है कि पहला सुख निरोगी काया ।
इन सब बातों को मद्देनज़र रखते हुए हम वर्षाऋतु की चर्या पर चर्चा करें तो बेहतर होगा इसीलिए हमने ऋतु-चर्चा शुरू करने से पहले इतनी बातें बता देना ज़रूरी समझा। एक बात और भी है कि मौजमज़े की बात छोड़ भी दें तो भी आमतौर से इस ऋतु में स्वास्थ्य रक्षा के लिए सतर्क और सचेष्ट तो रहना ही चाहिए क्योंकि ऋतु के प्रभाव से इस मौसम में पाचनशक्ति कमजोर रहती है और वात कुपित रहता है। हमें इनके साथ सन्तुलन बना कर रखना होगा ताकि हम स्वस्थ बने रह सकें।
इस ऋतु में एक विशेष बात यह भी है कि इस ऋतु में स्थिरता नहीं होती। कभी बादल आते हैं कभी आसमान साफ़ रहता है। कभी तेज़ वर्षा होती है कभी तेज़ धूप होती है। कभी तेज़ तो कभी मन्द हवा चलती है, कभी वातावरण में उमस होती है, कभी ठण्डक हो जाती है। ऐसी स्थितियों में ग्रीष्म ऋतु में संचित होनेवाला वात कुपित होता है और पित्त व कफ भी दूषित होते हैं लिहाजा इस ऋतु में हमें बहुत ही सावधानी से सन्तुलित आहार विहार करना होगा ताकि हमारे शरीर और वातावरण के बीच, आबोहवा (जलवायु) और शरीर की स्थिति के बीच तालमेल बना रहे।
वर्षा ऋतु के विषय में आयुर्वेद का कहना है
आदानग्लानवपुषामग्निः सन्नोऽपि सीदति । वर्षासु दोषैर्दुष्यन्ति तेऽम्बुलम्बाम्बुदेऽम्बरे । ।
सतुषारेण मरुता सहसा शीतलेन च। भूबाष्पेणाम्ल पाकेन मलिनेन च वारिणा । ।
वह्निनैव च मन्देन, तेष्वित्यन्योन्यदूषिषु । भजेत्साधारणं सर्वमृष्यणस्तेजनं च यत् ।।
अष्टांग हृदय सूत्र० ३/४२-४४
आदान काल होने से अपचित धातुवाले शरीरों में पहले से ही मन्द अग्नि दूषित वातादि दोषों से और भी मन्द हो जाती है क्योंकि वातादि (वातादि का मतलब होता है वात पित्त कफ) दोष दूषित होते हैं, साथ ही तुषारमिश्रित शीतल वायु के एक दम से चलने के कारण, पृथ्वी के बाष्प (भाप) से, अम्लपाक वाले और मैले पानी से तथा काल स्वभाव के कारण कफ के दूषित होने से, वातादि दोष एक दूसरे को दूषित करने लगते हैं। उस समय साधारण विधि अर्थात जो सबके लिए अनुकूल हो तथा अग्नि को प्रदीप्त करनेवाली हो उसका सेवन करे।
प्रारम्भिक काल में आहारविहार
Varsha Ritu me Aahar Vihar
इस ऋतु की सबसे याद रखने योग्य खास बात यह है कि वर्षा के दिनों में वात कुपित रहता है। बात कुपित होने पर गैस की शिकायत (गैस ट्रबल) पैदा होती है। इससे बचने के लिए हमें हलका और जल्दी पचने वाला आहार लेना चाहिए। भारी, देर से पचनेवाले, रूखे, बासे और गरम तासीर के पदार्थ नहीं खाना चाहिए।
वर्षा की शुरूआत में नई-नई घास ऊगती है, गाय भैंस इसी घास को खाते हैं इसलिए सावन मास में दूध पीना अहितकारी होता है। इन दिनों हरी पत्ती वाली शाक-भाजी का सेवन भी इसीलिए वर्जित माना गया है। वर्षाकाल में छिलके वाली मूंग की दाल को पचकोल के साथ सेवन करना पाचन क्रिया और लिवर को बल देने वाला होता है। शाकभाजी को शुध्द जल से धो साफ़ करके प्रयोग में लेना चाहिए।
इन दिनों में आम और मक्के के भुट्टे आते है। आम का सेवन करने का सबसे अच्छा ढंग इन्हें चूसना है। ताजा व सुगन्धित और मीठा आम गुणकारी, पौष्टिक रक्त वर्द्धक और बलवीर्य को बढ़ाने वाला होता है लेकिन खट्टे, कच्चे, सड़े हुए, दुर्गन्ध युक्त और पाल से उतरे हुए आम में यह खूबियां नहीं होती, उल्टे यह हानिकारक होता ।
आम का रस निकाल कर भी खाया जाता है। यह रस खट्टे, खराब, अधपके और दुर्गन्ध वाले आम का नहीं होना चाहिए। आम रस में पर्याप्त मात्रा में दूध मिलाने के अलावा थोड़ी सी पिसी सोंठ और थोड़ा सा शुध्द घी डालकर सेवन करने से इसका वात कुपित करने याने गैस पैदा करने वाला दोष मिट जाता है। आम का रस अपनी पाचनशक्ति के अनुसार उचित मात्रा में ही सेवन करना चाहिए। कटोरी भर भरकर पीना उचित नहीं। आम चूस कर खाएं तो अन्त में एक कप दूध पी लें। इससे आमरस जल्दी पच जाता है।
मक्के के भुट्टे सेक कर खाये जाते हैं। इसके अन्त में छाछ पीने से इनका पाचन ठीक से हो जाता है। भुट्टों को किस कर नाना प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन बनाये जाते हैं। यह पौष्टिक और बलवर्धक होते हैं।
वर्षा काल में जल की शुध्दता पर विशेष ध्यान देना चाहिए। जल को उबालने से जल हलका और शुध्द हो जाता है। कच्चे जल की अपेक्षा उबाल कर ठण्डा किया हुआ पानी सेवन करना निरापद और स्वास्थ्यरक्षक होता है। यदि नदी, तालाब का पानी पीने के काम में प्रयोग किया जाता हो तब तो उबाल कर ही प्रयोग करना चाहिए। इससे संक्रामक (छूतवाले) रोगों के आक्रमण की सम्भावना समाप्त हो जाती है।
पानी के बरतन में तुलसी की पत्तियां और ज़रा सी पिसी ‘फिटकरी डाल देने से भी पानी शुध्द होता है। इन दिनों जब थोड़ी सी वर्षा होकर बन्द हो जाती है तब ज़मीन के भभकने से गर्मी और उमस बढ़ती है। इस स्थिति में शरीर पर छोटी-छोटी फुंसिया (घमौरियां) हो जाती हैं जो कांटों की तरह चुभती हैं और जलन करती हैं। इन पर बर्फ़ का टुकड़ा घिसने और अच्छा टेलकम पाउडर लगाने से आराम हो जाता है। चन्दन घिस कर लगाने से भी आराम होता है।
अन्तिमकाल में आहार विहार
वर्षाकाल के अन्त में मच्छरों और हरे कीड़ों का उपद्रव पैदा होता है। बिजली या लालटेन की रोशनी के आसपास इन दिनों छोटे छोटे हरे कीड़े व पतंगे भारी मात्रा में इकट्ठे हो जाया करते हैं। हैं क्वार महीने की तेज धूप से गड्डों और पोखरों में तथा कीचड़ में मौजूद पानी है, सड़ता सूखता है और मच्छर पैदा करता है। इसी मास में पित्त कुपित होता है इससे बीमारियां उत्पन्न होती हैं।
इन दिनों पित्त कुपित करनेवाले पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए। तले हुए, नमकीन, खटाईवाले और तेज़ मिर्च मसाले वाले पदार्थ पित्त कुपित करते हैं। मच्छरों से बचाव करने के लिए मच्छरदानी लगा कर सोना चाहिए। बलसारा कम्पनी का बना ‘ओडोमास’ शरीर पर लगाने से मच्छर दूर रहते हैं इसलिए मच्छरों से बचाव हो जाता है। ओडोमास का ट्यूब बाज़ार में मिलता है।
इन दिनों की धूप से बचना चाहिए। खास कर जांघों के जोड़, अण्डकोश के आसपास और योनि प्रदेश पानी या पसीने से गीला न रहे इसका ख्याल रखना चाहिए। यहां के बाल साफ़ कर देना चाहिए। यहां खुजली या दाद होने पर आयुर्वेदिक ‘सोमराजी तैल’ या केडिला लेबोरेट्रीज का बना ‘डेक्साक्वीन आइन्टमेन्ट’ लगाने से आराम होता है। त्वचा पर खुजली चलती हो तो पार्क डेविस का बना ‘केलेड्रिल ‘लोशन’ का लेप करने से तुरन्त राहत मिलती है।
रसायन के रूप में, अनुपान के साथ बड़ी हरड़ का सेवन करनेवालों को वर्षा ऋतु में बड़ी हरड़ का महीन चूर्ण समान मात्रा में सेन्धानमक मिलाकर १ या २ चम्मच (छोटा चम्मच) मात्रा में ठण्डे पानी के साथ प्रातः या शाम को सोते समय सेवन करना चाहिए। जब क्वार का महिना याने शरद ऋतु के दिन शुरू हो जाएं तब सेन्धा नमक बन्द करके बराबर मात्रा में शकर के साथ हरड़ का चूर्ण लेना चाहिए।
Varsha Ritu me Aahar Vihar